वो काम से लौटती है
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(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर )
देर शाम
उस के आने पर
तमाम चिल्लपों और
चिंघाड़ते टेलीविज़न के बावजूद
चुपचाप पड़े घर में
जान आती है
देर शाम
उस के आने पर
संवाद की समस्या से
जूझते घर को
एक नयी जुबान आती है
वो पटकती है
उदासीन सी
एक झोला मेज पर
भानुमती के पिटारे सा
सब छिपा कर भी
सब बताता सा
इसी में है
शाम सुबह की सब्जियां
पति के सिगरेट का पैकेट
रेड लेबल चाय
बीमार सास के लिए
उपभोक्ता भण्डार से
खरीदी कुछ दवाएं
और हाँ ,
दस रुपए वाले दो चॅाकलेट
चाय के बाद
अगले आधे घंटे , वो
छिटपुट काम निपटाती है
सब सवालों के जवाब देती है
घर का परिदृश्य
बदल गया है
महरी, पड़ोस के
खिजाऊ देश सी
शिकायतें करती है
खांसती सास
महान भारतीय संस्कृति की
रक्षक भूमिका धरती है
डबल बैड पर अधलेटा
अलसाया सा एक पुरुष
बीच बीच में
फतवे जारी करता है
स्कूल–नोट्स और
होमवर्क के बोझ से
मुक्त होना चाहते बच्चे
सरकारी दफ्तर के
कामचोर बाबू नज़र आते हैं
सैकड़ों जुबान और
हज़ार भाषाओं के बीच
शाम की ये सभा समाप्त होती है
देर रात जब कहीं
एक पौरुष जागृत होता है
वो बस सोच रही है
सुबह जल्दी उठकर
भागना है
बच्चों के टिफ़िन में
क्या रखना है
एक और,
टूटी सी ये रात
बेसुधी की डगर पर चल पड़ी
नींद से .
रूठी सी ये रात !!
(डॉ.एल
.के.शर्मा )
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA
भावपूर्ण अभिव्यक्ति की कविता...बधाई आपको 😊
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