कान्त
, एकांत अब वास करो प्रिये !
==============================
ऋतु कोई भी हो शरद या हेमंत !
शिशिर पावस हो ग्रीष्म या वसंत !
‘इच्छिनी’ थी तुम, जब कहा तुमने !!
कान्त! बसंत….., न गमन करो प्रिये ,
मैं रुका ही रहा जब तक चाहा तुमने !!
फूल कोई भी हो सेमल या पलाश !
जूही पारिजात मालती या अमलतास !
‘सुरभिता’ थी तुम जब कहा तुमने !!
कान्त! कदम्ब….., न छाँव रुको प्रिये,
मैं झुलसा धूप में जब भी चाहा तुमने !!
गीत कोई भी हो सुंदरी या शालिनी !
चंचला स्वागता हरिणी या मालिनी !
‘संपादिका’ थी तुम, जब कहा तुमने!!
कान्त! वंशस्थ….., न छंद रचो प्रिये,
मैं पी गया पीर जब भी चाहा तुमने !!
राग कोई भी हो भैरवी या असावरी !
जोगिया रागेश्री कामोद या दरबारी !
‘वघनाक्षरी’ थी तुम, जब कहा तुमने !!
कान्त! सारंग……, न गान करो प्रिये ,
मैं गांधार हो हुआ जब भी चाहा तुमने !!
रूप कोई भी हो ‘प्रथमा’ या लक्षणा’!
मुग्धा लावण्या गीतिका या विलक्षणा !
‘मरिचिका’ थी तुम, जब कहा तुमने!!
कान्त! अन्त्ज्य…., न बांह धरो प्रिये,
मैं विदेह हो गया जब भी चाहा तुमने !!
ऋतु कोई भी हो शरद या हेमंत !
शिशिर पावस हो ग्रीष्म या वसंत !
‘इच्छिनी’ थी तुम, जब कहा तुमने !!
कान्त! बसंत….., न गमन करो प्रिये ,
मैं रुका ही रहा जब तक चाहा तुमने !!
फूल कोई भी हो सेमल या पलाश !
जूही पारिजात मालती या अमलतास !
‘सुरभिता’ थी तुम जब कहा तुमने !!
कान्त! कदम्ब….., न छाँव रुको प्रिये,
मैं झुलसा धूप में जब भी चाहा तुमने !!
गीत कोई भी हो सुंदरी या शालिनी !
चंचला स्वागता हरिणी या मालिनी !
‘संपादिका’ थी तुम, जब कहा तुमने!!
कान्त! वंशस्थ….., न छंद रचो प्रिये,
मैं पी गया पीर जब भी चाहा तुमने !!
राग कोई भी हो भैरवी या असावरी !
जोगिया रागेश्री कामोद या दरबारी !
‘वघनाक्षरी’ थी तुम, जब कहा तुमने !!
कान्त! सारंग……, न गान करो प्रिये ,
मैं गांधार हो हुआ जब भी चाहा तुमने !!
रूप कोई भी हो ‘प्रथमा’ या लक्षणा’!
मुग्धा लावण्या गीतिका या विलक्षणा !
‘मरिचिका’ थी तुम, जब कहा तुमने!!
कान्त! अन्त्ज्य…., न बांह धरो प्रिये,
मैं विदेह हो गया जब भी चाहा तुमने !!
(डॉ.एल
.के.शर्मा )
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA
कान्त अब एंकात वास करो प्रिये वाकई अल्फाज खुबसूरत है । गीत कोई भी हो सुंदरी या शालिनी ना छंद रचो प्रिये । अब तो कोई गीत प्रेम का सुनाओ प्रिये ।
ReplyDelete