Sunday, 22 March 2015

वो आँखें समंदर सी

वो आँखें समंदर सी
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गुंजा ....
पता नहीं किसने कहा है यूँ ...
“अगर मुझे तेरे रूबरू होने का मौका मिले
तो मैं तेरा गम
नुक्ता –बा नुक्ता , हू-ब-हू
बयान करूँ .....
और कुछ बरस ...यूँ ही बीत गए ...
जग की..जीवन की आपाधापी में......
तुम बारिशों की फुहारों जैसी आई ...पर शायद तपती रेत की सौंधी सी प्यास लिए
लगा ,प्यास की शुरुआत भी तुमसे है ...खात्मा भी !
एक दिन बताया था तुमने कि कैसे जब बारिश की 
पहली फुहारें पूरे बरस की प्यासी धरती को चूमती हैं तो ...
पता नहीं कौनसा “बैक्टीरिया” होता है 
जिसकी ‘सेल- वाल’ में कोई केमिकल बनता है उस पानी से वो महक आती है !
तुम आई थीं जिंदगी में ..
तो कुछ ग़मगीन सी धूप ढहाने लगीं ...
सन्नाटे के शामियाने उठाने लगीं ...
तुम एक उम्मीद थी मेरी सुबह ..
मेरी दोपहर ..मेरी शामों में ,अक्सर देर रातों में ...
उन दिनों यह अक्सर होने लगा ,
कि कुछ दिन छुट्टियां ले कर कहीं दूर 
मैं बस खुद को जीता था या खुद को तुम्हारे  साथ जीता हुआ देखता था ! 
जिस जगह तुम थीं ..मैं कभी नहीं गया वहां 
पर एक दिन मैंने कहा तुम्हें कि..
मैं जब सोचता हूँ या जब मैं तुमसे फोन पर बातें करता हूँ 
तो लगता है तस्सवुर में जैसे मैं मैं तुम्हारे घर के बाहर  खड़ा तुम्हें देख रहा हूँ ..
मैंने बताया तुम्हें एक दिन एक शिव मंदिर ....
एक पुराना कुआँ है ...जिस में बहुत कम गहराई पर पानी है ...
सामने एक बड़ा सा मैदान है ...
अक्सर कुछ झाड़ियाँ कुछ छोटे बच्चे खेलते हुए दिखते हैं ..वहां !
उस दिन तो नहीं पर कई दिन बाद कहा तुमने 
कि ऐसा वाकई था वहां कई बरस पहले ...
अब मंदिर को छोड़कर सब बदल चुका है ...!
तुम्हें पता है ना गुंजा ...
ख्यालों के आशियाने ... हकीकत वाले घरोंदों से टकरा कर टूट जाते हैं ...!
वक़्त बीतता चला जा रहा था ...फिर कई बरस बाद हम मिले ..
दक्षिण भारत के एक तटीय शहर में ...
हलकी गहराती सी उदास शाम ....सामने शांत समन्दर था.... 
लगा जैसे  उदासी की मौन वादियों में खोया हुआ हो ... कुछ लहरें किनारों से टकरा कर बैचनी के साथ लौट रही थी ....वैसे ही जैसे मेरे ज़ेहन में उम्र के वो बरस फडफडा  रहे थे जो हमारे हाथ से बंद मुट्ठी की रेत की मानिंद फिसल गए थे !
काली चट्टानों के सहारे खड़े तुम और भी उदास लगे... 
नमकीन हवाएं तुम्हारे चेहरे से टकरा रही थीं ...
ढीले हेयर बैंड में बंधे बाल बार –बार आँखों के आगे आ रहे थे पर तुम 
चेहरा दूसरी तरफ घुमा कर उन हवाओं  को जैसे अपने गाल पर महसूस कर रही थीं!
“तुम्हें प्यार नहीं रहा अब समन्दर से .....”, 
इतना बेबस देखा नहीं कभी तुम्हें .. 
लगा कहते हुए रो पड़ोगी तुम ,पर ज़ब्त किया तुमने 
अपने होठों को निचले दांतों में दबाते हुए !

“नहीं अब डराता है ये....”! ...”फिर क्यूँ  आये यहाँ ...”?
“समंदर मुझे डराते हैं ... 
अपने भीतर खेंच लेना चाहते हैं मुझे...फिर भी मैं आना चाहता हूँ... 
इनके पास जानती हो तुम ये ...”!
“अच्छा बताओ मेरी आँखों में क्या दिखता है तुमको....” ! 
एक बार फिर वो बेधती सी आँखें मेरे सामने थीं !
‘समन्दर जैसा ...” मैंने बताया ..!..
”और लोग क्या सोचते होंगे मेरी आँखों के बारे में...” 
गौर से देखा मैंने ..कुछ शरारत जैसा कुछ हो पर तुम ..
वैसे ही थी शांत गंभीर ...
पहली बार लगा एक पूरा ज़माना खड़ा है हमारे बीच ...
” तुम्हारी आँखें एक आईने एक आइने की तरहा हैं ...
वहां हर किसी को वो नज़र आता है जो वह खोज रहा है ...
मुझे लगता है देखने वाले को अपने मन के भाव वहां मिल ही जाते हैं ...” 
किसी तरह अटक अटक कर बोलता रहा मैं !
“सुनो..तुम्हें ये समन्दर बिलकुल मेरे जैसा ही लगता है ...”!
“...नहीं तुम्हारी आँखें लगती हैं वैसी मुझे ... “! 
अचानक तुम्हारे बाल मैंने पीछे कर दिये ..तुम्हारी आँखों से हटाते हुए
मैंने देखा ...तुम्हारे माथे पर सिदूर नहीं था ....पूछ लिया यूँ ही ...!
“तुम्हारे होठों पर रह गया है कहीं ...”!
..याद आया एक बार चूमा था तुम्हारा माथा 
उस दिन लगा था सिन्दूर वहां ...


“मैंने पी लिया ..

अपने होठों से

तुम्हारे माथे का सिन्दूर

इस एक उम्मीद में कि...

हर सुबह आईने के आगे खडी तुम ,

ढूंढोगी  मुझे

अपने श्रंगार-दान में


कि,

अपने माथे पर 

रोज महसूस करोगी 

मेरे सिन्दूरित 

होठों की छुअन को


अब आओ 

फिर से आओ

मुझ पर अपने साथ जी लेने के

कुछ तो इलज़ाम लगाओ ....

तुम सुन रही हो ना, गुंजा ...



(डॉ.एल .के.शर्मा )
……©2015 Dr.L.K.SHARMA





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