Saturday 22 August 2015

सुन रही हो , गुंजा..... (डॉ० लक्ष्मीकांत शर्मा)

सुन रही हो , गुंजा.....
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( डॉ० लक्ष्मीकांत शर्मा )


“सुनो , हमारी दोस्ती कब हुई... ?”

पता नहीं मेरी तन्द्रा तुम्हारे सवाल से टूटी ,या अपनी आँखों पर झूल आई ,सुनहरी सी लटों  को

झटके से पीछे करने में तुम्हारे बाएं हाथ के दो फिरोजी कांच के कडों  के टकराने से हुई 

आवाज़ से...

पर मैं उस दिन वाकई तैयार नहीं था उस सवाल के लिए , तुम्हारी आँखों  में झाँक कर देखा

उन सपनीली आँखों में एक चेतावनी जैसा कुछ था ...बरज रही हों जैसे ....

बीकानेर की एक पीली आंधी वाली शाम थी ये रेत के समंदर के किनारे !

गुंजा ...

उस दिन मैंने पूछना चाहा  “क्या तुम्हें मालूम नहीं ये ...?”

‘ये शायद सोलहवीं शताब्दी की बात है ..जब हम पहली बार मिले थे"

उम्मीद थी तुम हंसोगी ... पर नहीं ,...तुम किसी सोच में दिखी  ..तुम्हारी आँखें अब जैसे

किसी स्वपनलोक , में जाने को तैयार थी ...

 “कौन थी मैं तब ...?.. ये सवाल तो हरगिज़ नहीं था ..

क्या नाम था मेरा ?

“तिश्य” ...अचानक मेरे मुहं से निकला ..तुम राजकुमारी थी ..

“और तुम कहाँ थे वहां ?

“ सामंत था उसी रियासत का ....जो बाद में सन्यासी हो गया ...

‘’ तुम को कहाँ मिली मैं सबसे पहले ..बागीचे में ..

अब हैरत की बारी मेरी थी ..हाँ कुछ धुंधला सा याद है

“याद करो मैं और मेरी सखी ...


“समय की सरकती रेत पर

सोये जज्बातों के बाग में

एक सुरमई सी सांझ में 

वर्जनाओंके दरख़्त तले 

अचानक तुम्हारे होठ खुले 

सुनो आज का नहीं ये रिश्ता 

पिछले जनम के कालखंड से

ढूंढ कर छोड़ गया है तुमको
 
आज कोई पगलाया सा फ़रिश्ता ...........

गुंजा ....

उस अँधेरी सी शाम में अचानक हमारे बीच प्रेम विरह और दर्द के कई रंग उतर आये थे.

मुझे जाना है अब ...तुम उठी और धीमे से बोली ...

“तुम कई जन्मो से साथ हो मेरे...पर इस बार बहुत देर से मिले हो .... !!

मेरे अगले कई दिन बेहद उदासी भरे गुजरे ....हर घडी तुम मेरे भीतर बोलती रही थी जैसे ..

अचानक एक दिन लंच के बाद मेरे ऑफिस के फोन पर तुम्हारा फोन आया ..

“तिश्य और सामंत का क्या रहा था क्या वो मिल पाए कभी ...

सुनो गुंजा .....

मैं  निरुत्तर हूँ ......

आज भी


मैंने प्रेम के गहरे गुलाबी रंग को
 
खून के लाल रंग में तब्दील होते देखा 

जिस के दो टुकड़े हुए जिन्हें 

विरह और दर्द के स्याह रंगों 

में तकसीम होते देखा 

सोये जज्बातों के बाग में

एक सुरमई सी सांझ में 

मैं एक मासूम से रिश्ते की 

लाश लिए लौटा 

अतीत की स्मृतियों  से कांपती 

तुम्हारी हथेलियों की निरर्थक 

तलाश लिए लौटा 

उस दिन से आज तक मैं उसी 

दरके हुए काल-खंड को सी रहा हूँ 

मेरे जिस्म के काँटों में फँसी 

अमरबेल सी तुम्हारी चाहत का हरापन 

कहता है कि......हाँ ! सुनो 

मैं अभी तक जी रहा हूँ 

समय की सरकती रेत पर

वर्जनाओंके दरख़्त तले 

मैं अभी तक जी रहा हूँ 

 सुन रही हो न तुम ,

गुंजा.....


……©2015Dr. L.K. SHARMA 




Friday 21 August 2015

तुम यूँ भी साथ होती हो (डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा)

  तुम यूँ भी साथ होती हो 

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   (डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा)



कभी यूँ भी
तुम साथ होती हो....


अपने आप में सिमटी
पेशानी पर दो सलवटें लिए
घर भर में लगातार घूमती हो !


कभी यूँ भी
तुम साथ होती हो....


बंद खिडकियों वाले अँधेरे कमरों में
पायलों के रोशनदान सी चांदी चमकाती हो
नए कंगनों के फ़िरोज़ से यूँ ही
अदृश्य धूल हटाती रहती हो !


कभी यूँ भी
तुम साथ होती हो....


जैसे रातों में चाँद मेरे साथ होता है
जिसे छूने की नाकाम कोशिशें को देखकर
मेरे दोनों हाथ सुन्न कर जाती हो !
 
कभी यूँ भी
तुम साथ होती हो
कि मैं देर तक तुमसे लड़ता रहता हूँ 
ये जताने को कि, साथ हूँ तुम्हारे 

क्योंकि मैं जानता हूँ बहुत जल्द तुम
खुद को ही तनहा कर जाती हो !


कभी यूँ भी
तुम साथ होती हो....


फुर्सत से अपने बिस्तर पर अधलेटी सी
अपनी पुरानी यादों के दरीचों में
डायरी के साथ दांतों में पेंसिल दबाये
किसी कविता का भाव सोचती हो !


ऐसे मैं अक्सर मैं 
कमरे का उढका दरवाज़ा खोल कर
चुपचाप भीतर सरक जाता हूँ
हैरानी से फैली आँखें लिए
बेतरह मुझसे लिपट जाती हो !!


अक्सर तुम,
यूँ ही
साथ होती हो !!



……©2015Dr. L.K. SHARMA
 

Wednesday 19 August 2015

कच्ची नीम की निम्बोली (डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा )

कच्ची नीम की निम्बोली 
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(
डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा )


बेवक्त की बारिशों में,
मन कुछ यूँ भीगा
समंदर ने रेत से कहा
चलो खेलें आँख-मिचौली !!

नेह बरसाते झरनों ने
सूखने से पहले प्यार की
वादियों में बो दी रंगोली !!

मुस्कान से भरे फूलों को
खुश रंगों में सजाते रहे
सूनी आँखों के बीहड़
वीरानों ने फिर से देखी
सूरजमुखी दुल्हन की
अनुराग भरी डोली !!

पंछियों के कलरव भरी भोर में
नाचने लगे मोर
हरे भरे खेतों में
दर्द के गीतों सेप्रेम कवितायें
करने लगीं ठिठोली !!

गीली मेहँदी से भरे हाथ
कटे कलेजे से जा मिले
रूह की प्यास देखने लगी
तराशे हुए जिस्म के घड़े में
उछलती बूंदों की होली !!

बेवक्त की बारिशों में
अचानक पछुआ ने डंक मारा
मांगे हुए बन्दनवार सूख गए
अखंडित विश्वास डोलने लगा
सूनी डगर खडी रही
बन कर पीर अबोली !!

बेवक्त की बारिशों में,
बेली’ के फूलों के गालों पर
अलकनंदा से बल खाते बालों पर
लाल मूंगे से सजे हालों पर
दर्द के गुलाल उड़ाते बादलों पर
चढ़ाई जा चुकी थी
छलनाओं की खोली
प्रीतविखंडित छंदों में
पैठ गयी वंचनाओं की बोली !!

बेवक्त की बारिशों में,
कहीं दूर एक पागल
छोटी सी लड़की
गाती रही........
कच्ची नीम की निम्बोली !!
सावन जल्दी अइयो रे,
कच्ची नीम की निम्बोली.



……© 2015 कच्ची नीम की निम्बोली Dr.LK SHARMA

Tuesday 18 August 2015

सोचा था इन बरसातों में (डॉ.एल.के.शर्मा)

  सोचा था इन बरसातों में 
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    (डॉ.एल.के.शर्मा)

सोचा था इन बरसातों में
भीगे तन से पींग भरूँगा
पावस मद में बहक जाऊँगा
सावन के कुछ छंद लिखूंगा !!

पिहूक पपीहे की पी लूँगा
कुहु कोयलिया की जी लूँगा
महुवा रस की धार भरूँगा
सोनजूही का ताप हरूँगा !!

पावस मद में बहक जाऊँगा
सावन के कुछ छंद लिखूंगा !!

किसे खबर थी विपत मिलेगी
और जीवन के अनुबंध लिखूंगा !!
बस औरों की आँख तकूंगा
बस उन से सपने मांगूंगा
फिर अपनी आँखों में भर लूँगा
इस थार को जीवन कर लूँगा
उस नागफनी की छाँव लगूंगा !!

पावस मद में बहक जाऊँगा
सावन के कुछ छंद लिखूंगा !!

उस सावन जो गले लगे थे
इस सावन जो चले गए है
उन बादलों को याद करूँगा
पेड़ ,परिंदे और प्रवास के
हाहाकारी निबंध लिखूंगा !!

पावस मद में बहक जाऊँगा
सावन के कुछ छंद लिखूंगा !!

किसे खबर थी विपत मिलेगी
और जीवन के अनुबंध लिखूंगा !!
विलुप्त नदी के तीर जाऊँगा
वियोग के प्रबंध लिखूंगा !!

पावस मद में बहक जाऊँगा
सावन के कुछ छंद लिखूंगा !!



……© 2015
‘सोचा था इन बरसातों में’Dr.L.K.SHARMA'