Monday, 2 March 2015

हाँ , प्रेम हूँ मैं

हाँ प्रेम हूँ मैं

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हाँ , मैं प्रेम हूँ

मैं बांधना चाहता हूँ

नदी से उत्पत्त् तुम्हारे बहाव को
मैं सहस्त्रबाहुबनता हूँ रोज रातों में
समेट लेना चाहता हूँ हज़ारों हाथों में
तुम्हारी आत्मा से लेकर देह तक के
हर बिखराव को
हर फैलाव को

हाँ , मैं प्रेम हूँ

मैं डूबना चाहता हूँ
सागर से गहरी इन आँखों में
स्टिंगरेसे भी गहरे दंशों में
मैं सी-हॉर्सबनता हूँ रोज रातों में
डिम्बधरता हूँ अपने ही हाथों में
तैरने लगता हूँ तुम्हारे अन्दर तक
उस अंतस में
उस अतल में

हाँ , मैं प्रेम हूँ !!


(डॉ.एल .के.शर्मा )
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA


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