Wednesday, 11 February 2015

एक इंसान हो तुम भी....

एक इंसान हो तुम भी
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आ जाओ कि
तुम्हारे बदन के

कोरे सफों पर मैं
रूह की कलम से
एक वक़्त लिखूं
एक दौर लिखूं


आ जाओ कि..
तुम्हारी आँखों में
देख कर मैं कहूँ
मेरा सब्रो-सुकूँ हो   
मेरा इत्मीनान हो  
मेरा जब्ते-दर्द भी
ज़ब्र का इम्तिहान हो  !!


आ जाओ कि..
मैं यकीन कर सकूँ
कि तुम बस प्यार हो
उगती हुई सहर सा
ढलती हुई सर्द रात को 
मचलती हुई लहर सा


आ जाओ कि..
मैं देख भी सकूँ
कि फ़रिश्ते की शक्ल में
एक इंसान हो तुम
खुदा का शुकराना करूँ
कह सकूँ कि, खुदाया
मुझ पर मेहरबान हो तुम  !!

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और फिर मैं  ...

तुम्हें रुबाइयों के जंगल में छोड़ आऊँगा 

मैं अफसानो की दुनिया में सिमट जाऊँगा

मैं ग़ज़ल की नर्म कोंपलों में छिप जाऊँगा

वक्त के शज़र की कोटरों में छिप जाऊँगा

मैं पुरानी कहानियों सा तुम्हे याद आऊँगा 

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(डॉ.एल.के.शर्मा)
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA










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