सुनो, सुकेशा....
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सुनो सुकेशा ,
आपाद अभिव्यक्ति से कुंठित
एक वाचाल शब्द जाल से लज्जित
हाँ , आज किंचित अपमानित हूँ
एक “शुभेच्छु” के कुलिश घात से लहुलुहान
विवश विकल पराजित हूँ.
अँधेरी सुरंग में हांफती, आत्मा
डर कर भागती
प्रकाश पुंज की ओर
दसों दिशाओं से कोलाहल उभरता है
एक अनंत कर्णबेधी शोर.
सुनो सुकेशा ,
चाह्ता हूँ
डटा रहूँ युद्ध भूमि में
कवच रहित कर्ण सा
निर्भीक राधेय बनूँ
मान ही लूँ अब
है ये उत्सव प्राणों के उत्सर्ग का
मृत्यु-वर्ण सा.
पत्थरों तले चीखते
हस्तिनापुर के इतिहास में समा जाऊं
जीवन जय या कि, मरण होगा
किन्तु ,कायरता से भरे
असमंजस में हूँ
किसी भी एकान्तिक स्थिति में
अब आत्मिक क्षरण होगा.
सुनो सुकेशा ,
ड्रैगन की लपटों वाली आग
नथुनों से उलीचते
अपनों का मुखौटा ओढ़े
कुछ पराये लोग हैं
छद्म स्वजनिक भीड़ में
गिर पड़ता हूँ मैं
दावानल से उष्ण विपर्यस्त हवाओं में
लुंठित परों वाले बाज सा
जलते हुए अपने ही नीड में.
सुनो सुकेशा ,
इस बार लाक्षागृह के भेद
बताये नहीं तुमने
आभासी सप्तपदी के हवन कुंड की
असल अग्नि में जलते
प्रणय के पीले पलाश भी
बचाये नहीं तुमने.
सुनो सुकेशा ,
चलो चलते हैं ,
मैं वध स्थल तक जाता हूँ
आओ मैं मूक पशुवत् समपर्ण करूँ
तुम शिराओं में छटपटाते
मेरे रक्त से श्रृंगार करो
मैं तुम्हारे पारदर्शी शरीर को
अपना दर्पण करूँ.
सुनो सुकेशा ,
हाँ, मैं अब भी
स्पर्श-लालायित हूँ
मृत्यु-सिंचित इस पल में ,
कलंक कलवित सही
मैं इस पीड़ा से भी
आल्हादित हूँ.
(डॉ.एल.के.शर्मा)
……© 2015Dr.LK SHARMA
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