कभी कहा था तुमने
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अँधेरे अशुभ होते
हैं
तुम्हें शुभ्र दीपों
की पूजा तक ले जाऊँगी !!
अधखुले मूँगे से
होठों से
मैं बेआवाज़ ,
तुम्हारे नाम की टेर
लगाऊँगी !!
तुम्हें छू कर रूह
की
प्यास फ़ना कर दूंगी
मैं फिर तुम्हें
जिस्म के मुकम्मल
सवालों तक ले जाऊँगी
!!
मैं हकीकत के तल्ख़
कुरूप सवालों से दूर
तुम्हें
रूप के खिलखिलाते
हुए
ख्यालों में ले जाऊँगी
!!
वहशी अल्फाजों से
भरी वो
बरसों पुरानी डायरी
जला दूंगी
अपने हाथों से लिखे
प्रेम के
रिसालों में ले जाऊँगी
!!
सुनो ‘कंतुश’ तुम
बॉटनी
पढ़ाते हो,
मैं उद॒भिज-विज्ञान
पढ़ाऊँगी !
तुम्हारे मन के बंज़र
में
नागफनी के सदाहरित
फूल खिलाऊँगी !
हर टुकड़े से नया झाड
फूटेगा
यूँ मैं तुम्हारे
प्रेम को अमर कर जाऊँगी !
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मगर ...
समंदर के तट पर
तुम सहसा नाचने लगी
अंधेरों में
अपनी फिरोजी पायलों
की छन में
जैसे आंधियों में
घिरा श्रीफल वृक्ष
धूँ धूँ कर जल उठे अग्नि वन में
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यह कब कहा था तुमने...
कि तुम
‘स्त्री-विमर्श’ का शोध करोगी
फिर ‘प्रेम –विमर्श’
पर परिचर्चा रखोग
कुछ ‘देह–विमर्श’ डेलिगेटस॒ बुला लोगी
प्रेम की सुविधाजनक परिभाषा रच दोगी
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(डॉ.एल.के.शर्मा)
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA
तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे
ReplyDeleteमुहब्त की रहों में मिलके चले थे ।
एक प्रेम ग्रंथ की रचना रचने चले थे ,
सागर कि लहर ने इस ग्रंथ को बहा दिया ।