Wednesday, 25 February 2015

सोचो, सुदेष्णा !!

सोचो, सुदेष्णा ! दृश्य यूँ भी बदलता है 
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ढह गयी हो तुम, 

रात के इस पिछले पहर में 
अपने ही बिस्तर में 
अपनी ही निर्वस्त्र घाटियों में घूमती 
सहवास के बाद वाली जीवंत खुमारी सी 
इस रात के बाद भी आध्य-कुमारीसी 

रूप के इस सागर में मैं ,
उद्दीपन , स्तम्भन
और स्खलन तक की नौकाओं में डोलता सा 
आवारा शोख हवाओं में एक पत्ता काँपता सा 

प्रेयस हुई हो अब 
रात का पिछला पहर है 
धीमे से फुसफुसाती हो 
मेरे गले में मुहँ छिपाती हो 
सुनो ,एक दिया जलाया है 

तेरे नाम का 
अपने आँचल की ओट में 
राग का रंग का ,प्रीत और काम का 

दूर से एक डोर से बाँध लिया है तुम्हें 
आओ तुम उत्सर्ग करो 
प्रणय-सर्ग में अपना सर्वस्व अर्पण कर दो 

इस परिणय का कोई जामिन नहीं 
कोई गवाह नहीं ,शाहिद नहीं 
इसकी जमानत महज़ ये आवाज़ मेरी 
सात फेरों की रस्म वाली 
कोई मजबूरी भी नहीं 
पर सुन लो तुम ,कहती हूँ मैं ,
अब तुमसे कोई दूरी भी नहीं !!!


  (डॉ.एल.के.शर्मा)
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA




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