प्रेम नदी हो तुम.....
पीतसारिका ,
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“पीतसारिका”
एक प्रेम नदी, हो तुम !
“पीतसारिका”
मैं तट का पातहीन द्रुम !
बहने लगी भीतर मेरे,
कुछ ‘पीतगंध’ से पुष्प लिए
!!
नित नए नेह के नीड बुने,
कुछ प्रणय निवेदित गीत दिए
!!
तुम शीतल सांझ, बयार !
“पीतसारिका”,
मैं दमित कोई अभिसार !
दहने लगी भीतर मेरे,
अरण्य आग सी तपन लिए !!
तन बना, वासन्ती वेदि कुंड,
और मकरंदों ने हवन किए !!
तुम मधु-मादक, सी राग !
“पीतसारिका”
मैं आषाढों में दबी आग !
बजने लगी भीतर मेरे,
मेंहदियाए पैरों के नृत्य
लिए !!
तुम ‘गीतिका’ सी नाच उठी,
विसुध अभिसारित गीत लिए !!
तुम पुष्प राग का, भाव
प्रिये !
“पीतसारिका”,
मैं नागफनी की छाँव प्रिये !
झरने लगी भीतर मेरे,
झरनों के तेज बहाव लिए !!
तुम झील बनो गहरी गहरी,
मत बीजो ‘सोनजुही’ बरुए !!
एक प्रेम नदी, हो तुम
“पीतसारिका”
(डॉ.एल.के.शर्मा)
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA
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