Saturday, 28 February 2015

प्रेम नदी हो तुम

प्रेम नदी हो तुम.....
पीतसारिका ,
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“पीतसारिका”
एक प्रेम नदी, हो तुम !
“पीतसारिका”
मैं तट का पातहीन द्रुम !
बहने लगी भीतर मेरे,
कुछ ‘पीतगंध’ से पुष्प लिए !!
नित नए नेह के नीड बुने,
कुछ प्रणय निवेदित गीत दिए !!
 
तुम शीतल सांझ, बयार !
“पीतसारिका”,
मैं दमित कोई अभिसार !
दहने लगी भीतर मेरे,
अरण्य आग सी तपन लिए !!
तन बना, वासन्ती वेदि कुंड,
और मकरंदों ने हवन किए !!

तुम मधु-मादक, सी राग !
“पीतसारिका”
मैं आषाढों में दबी आग !
बजने लगी भीतर मेरे,
मेंहदियाए पैरों के नृत्य लिए !!
तुम ‘गीतिका’ सी नाच उठी,
विसुध अभिसारित गीत लिए !!

तुम पुष्प राग का, भाव प्रिये !
“पीतसारिका”,
मैं नागफनी की छाँव प्रिये !
झरने लगी भीतर मेरे,
झरनों के तेज बहाव लिए !!
तुम झील बनो गहरी गहरी,
मत बीजो ‘सोनजुही’ बरुए !!
एक प्रेम नदी, हो तुम
“पीतसारिका”

(डॉ.एल.के.शर्मा)
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA






Wednesday, 25 February 2015

सोचो, सुदेष्णा !!

सोचो, सुदेष्णा ! दृश्य यूँ भी बदलता है 
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ढह गयी हो तुम, 

रात के इस पिछले पहर में 
अपने ही बिस्तर में 
अपनी ही निर्वस्त्र घाटियों में घूमती 
सहवास के बाद वाली जीवंत खुमारी सी 
इस रात के बाद भी आध्य-कुमारीसी 

रूप के इस सागर में मैं ,
उद्दीपन , स्तम्भन
और स्खलन तक की नौकाओं में डोलता सा 
आवारा शोख हवाओं में एक पत्ता काँपता सा 

प्रेयस हुई हो अब 
रात का पिछला पहर है 
धीमे से फुसफुसाती हो 
मेरे गले में मुहँ छिपाती हो 
सुनो ,एक दिया जलाया है 

तेरे नाम का 
अपने आँचल की ओट में 
राग का रंग का ,प्रीत और काम का 

दूर से एक डोर से बाँध लिया है तुम्हें 
आओ तुम उत्सर्ग करो 
प्रणय-सर्ग में अपना सर्वस्व अर्पण कर दो 

इस परिणय का कोई जामिन नहीं 
कोई गवाह नहीं ,शाहिद नहीं 
इसकी जमानत महज़ ये आवाज़ मेरी 
सात फेरों की रस्म वाली 
कोई मजबूरी भी नहीं 
पर सुन लो तुम ,कहती हूँ मैं ,
अब तुमसे कोई दूरी भी नहीं !!!


  (डॉ.एल.के.शर्मा)
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA




Monday, 23 February 2015

फाग-फाग होरी हो गयी

फाग-फाग होरी हो गयी
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(1)

आज फिर अचानक
थम सी गयीं हवाएं ,
ठिठक गए पत्तों के पांव !
जाग सी उठी घटाएं ,
कुनमुनाई पीपल की छाँव !!

 (2)
आज फिर अचानक
सोनजूहीने बरसा दिए,
फूल अंजुरी भर-भर ! 
सरसों के खेत में उड़ते उड़ते,
रुक गए कृष्ण-भ्रमर!!

(3)

आज फिर अचानक
बादलों की ओट से लगा झाँकने
सूरज व्यतिथ सा !
मेरी गुमसुम सी देह मुस्कुराई
जाग उठा तन वसंत सा !!

(4)
आज फिर अचानक
पलाश के लाल दहकते फूल 
छुपे,सघन हरे पातो में !
जैसे हरी चुनर लपेटती हो तुम
सुर्ख मेंहदी रचे हाथों में !!


 (5)
आज फिर अचानक
तुम्हारे आते ही मेरे मन की,
सारी सृष्टि गोरी हो गयी !
तुम्हरे बदन के बसंत से
नहाई धूप में ,
मेरे बदन की हरेक राग,
फाग-फाग होरी हो गयी !!


(डॉ.एल.के.शर्मा)
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA


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Sunday, 22 February 2015

खाली बेंच पर

खाली बेंच पर
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सूने रेलवे–स्टेशन के
उस प्लेटफार्म की  
खाली बेंच पर
बैठे हम साथ
उतने ही पास, जितने
चाँद सितारे पास हैं
तुम्हारी छत से

मैं खाली आँखों से
धुआं धुआं आसमान  
ताकता हूँ
तुम अपने सूखे होठों पर
जबरिया मुस्कान
समेटे हो
बेवज़ह


ये अंगुलियाँ
आज भी कसी हैं
पर दूजे की
हथेलियों में नहीं
बेतरतीब ठुंसे कपड़ों से भरे
सूटकेसों पर  

हम एक नज़र
नज़र बचाकर
देख लेते हैं
एक दूसरे को
फिर अपने टिकट्स को
एक और बार
जैसे वो संधि-पत्र हों
या आखिरी युद्ध में जीते
स्मृति - चिन्ह 
एक चिर शत्रु से

ना जाने आज
सियालदह एक्सप्रेस
कितना लेट आएगी
मैं जान रहा हूँ
तुम चाहती हो
मैं उठ कर पता करूँ

मगर मित्ती,
मैं नहीं जानना चाहता
कौनसी ट्रेन
किस दिशा से आएगी
हममें से किसी एक को
किस देस ले जाएगी
और कोई एक
यहीं रह जाएगा
इस अकेली रात में
सूने प्लेटफॉर्म की
खाली बेंच पर उसकी
रात बीत जाएगी
लगता तो है मित्ती,
आज रात गहरी नींद आएगी


सुनो ,

तुम चाय पिओगी....
मुझे पीनी है....


(डॉ.एल.के.शर्मा)
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA





Friday, 20 February 2015

जज्बातों के साहिलों से

जज्बातों के साहिलों से
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(लक्ष्य अंदाज़”)

जज्बातों के साहिलों पर खुद से सटाए रखना !!
जब तक चाहो हम को पहलू में बिठाए रखना !!


इस समन्दर में आस की मछलियाँ मचलती हैं ,
मेरी ही आँखों में अपनी सूरत तो बसाए रखना !!


आँगन के शहतूत में शलभ का पत्ता घर बना है ,
रेशम वाले ककून में भी हमको जिलाए रखना !!


हुस्न में चाँद टाँगने के हुनर बस तुमको आते हैं,
नुमाइश में जादू टोने की दूकान लगाए रखना !!


इक बेपरवाह शबाब पर काली जुल्फों का पर्दा है ,
इस अंदाज़-ऐ-गाफिल को अल्लाह बचाए रखना !!


  (डॉ.एल.के.शर्मा)
……© 2015 Dr.L.K. SHARMA