Friday, 4 September 2015

बिछडन के पार -I(डॉ.लक्ष्मीकांत शर्मा )

बिछडन के पार -I
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किसी छोटी बच्ची सी ,

चहकती रही थीं ,

तुम 

बोलती रही थीं 

मेरे हाथों को 

वक़्त की तराजू बना 

बीते लम्हों को 

तौलती रही थीं 

बैठ कर ,उस रोज 

पार्क की उसी बेंच पर 

यहीं आते थे स्कूल से 

भागकर हम 

यहीं बैठकर 

टिफिन खाते थे हम 

यहीं पढ़ा करते थे हम 

विज्ञान की किताब के बीच 

छिपाकर, 

मिल्स एंड बूंसको घंटो तक 

इसलिए 

उस बिछडन के बाद 

पहली बार 

तुम्हे यहाँ बुलाया 

ताकि देख सकूँ 

कैसा लगता है उस 

तरुवर का गाछ ,

जिसका बीज कभी रोपा था 

यहीं सत्पत्ती की 

छतरी तले , 

अनजाने में !!


……© 2014Dr.L.K.SHARMA

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