Thursday, 10 September 2015

एक सहमी सी शाम (डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा )

एक सहमी सी शाम 
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(डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा )


एक सहमी सी शाम 

दबे पाँव आएगी 

हाईवे पर दौड़ते ट्रक्स और 

हैडलाइट्स की चिंघाड़ती रौशनी में

दम तोड़ जाएगी 


मुझे फिर यादों के 

उसी बियाबान में छोड़ जायेगी 

हौसला अब तो 

यह भी कहने का नहीं मेरा 

वो किसी रोज़ लौट आएगी 


और… 

किसी विकलांग मौन के 

नपुंसक सम्मोहन में पड़ी तुम 

कैसे मेरे साथ चल पड़ी तुम 


मोमबत्ती की मानिंद 

रात भर जली तुम, क्या 

इतना मोम जमा कर पाओगी 

कि मेरी रूह जो इन दिनों 

खुली आँखों देख रही है 


तुम्हारे संग के 

संग मरमरी सपने 

उन आंखों को,
उस मोम से भर पाओगी 


और 

सुदूर पूरब की हवाओं के साथ 

बह कर आ रही 

तुम्हारी साँसों की वो रंगीन तितलियाँ 

कैसे मेरे ज़ख़्मी सीने से उड़ा पाओगी 


मित्ती बोलो ...
कब तक इन कविताओं का आडम्बर रचता रहूँ  !!
हाँ मैं चाहने लगा तुमको ये कहने से बचता रहूँ !!


……©2014 Dr.L.K.SHARMA




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