Sunday, 13 September 2015

सिमट कर नहीं रहता (डॉ.लक्ष्मी कान्त शर्मा)

सिमट कर नहीं रहता

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(लक्ष्य “अंदाज़”)

वैसे भी मेरे घर की चिलमन में सिमट कर नहीं रहता !!
रंग नहीं खुशबू है वो मधुवन में सिमट कर नहीं रहता !!

गहरी आँखों के पानी में इक किश्ती कोई डूबी तो क्या ,
रूप का दरिया एक ही दरपन में सिमट कर नहीं रहता !!

कल जब वो उस जंगल से ज़ख़्मी हुए पाँव लिए लौटा ,
बोला ये बनफूल किसी चमन में सिमट कर नहीं रहता !!

गीली माटी की सौंध में लिपटे खस को क्या पहचानोगे,
जो शज़र चन्दन है वो सहन में सिमट कर नहीं रहता !!

तू दरिया के बालू सा सौदागर तुझे मूर्तियों में गढ़ लेंगे ,
सहरा की रेत मैं किसी सावन में सिमट कर नहीं रहता !!

सूखती फसल लहलहाती बेटियाँ इक टुकड़ा बंजर ज़मीं ,
अब किसान जीव का धडकन में सिमट कर नहीं रहता !!

‘अंदाज़’ को न बदनाम कर उसके अंदाज़ बड़े अच्छे हैं ,
ये बात और वो अब तेरे दामन में सिमट कर नहीं रहता !!


……©2015 “ANDAZ-E-BYAAN” Dr.L.K.SHARMA


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