कब
जा के रुकेगा
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(लक्ष्य “अंदाज़”)
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इस आवारगी का सफर कब जा के रुकेगा ।।
चाँद से बड़ा वो रश्के कमर कब जा के झुकेगा ।।
वो आँखों की अदाओं से भी तिज़ारत करने लगे ,
इस धूप में आईनो का कहर कब जा के रुकेगा ।।
बोलियों की मिठास भी ज्यूँ खार की खलिश हुई ,
कलेजे में उतर रहा ये नश्तर कब जा के रुकेगा ।।
अंजुमन के चिराग को आगोश में भर तो लिया ,
परवानों की होड़ में ये बशर कब जा के रुकेगा ।।
अल्फ़ाज़ों की आड़ में है ये ज़हालत 'अंदाज़' की ,
यूँ ग़ज़ल के बदन पर बहर कब जा के झुकेगा ।।
©2015 “अंदाज़े
बयान”
Dr.L.K.Sharma.
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