Sunday, 27 September 2015

सलाम वो सुहाने (डॉ.लक्ष्मीकांत शर्मा)

सलाम वो सुहाने

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(लक्ष्य “अंदाज़”)

फूल और रंग के सफ़र जब कुहरे की घनी चादर ताने !!
फूलों वाली वादी की डगर साथ चलो ना सैर के बहाने !!

मेरे अख्तियार में नहीं अब शरारतें सर्द सर्द हवाओं की ,
रुई के गोलों सी भाप बनो फिर बुनूँ सांस के ताने बाने !!

तेरी छत के नीचे से गुजरती काली सडक का खालीपन ,
वो भर गया होगा जो आता है मंदिर की घंटिया बजाने !!

अब सोचता हूँ मैं तुझे ढूँढने जाऊँ तो कहाँ तक जाऊँगा,  
हरेक सफे में सो रही हो तुम किसी नज्म के सिरहाने !!

तितलियों के अंदेशे में हथेलियाँ काँटों से भरती ही रही ,
खूँरेज़ हाथों से कैसे करते “अंदाज़” तुझे सलाम वो सुहाने !!



©2015 “अंदाज़े बयान Dr.L.K.Sharma.









  





Thursday, 24 September 2015

तू ना नज़र आया ( डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा)

तू ना नज़र आया

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 (लक्ष्य “अंदाज़”)


तू फिर उसी बात पर परेशां नजर आया II
क्यूँ मेरे हिस्से वो फूलों का शजर आया II

वादा तो सांस सांस साथ निभाने का था ,
वो आखिरी हिचकी पे भी ना नजर आया II

उस गली के छोर पर तेरा वो बंद मकान ,
बेखुदी में जाने वहां कब कब गुजर आया II

शायद रवायतें अपने सहन में भी बची हों ,
राह भटका परिंदा साँझ लौट के घर आया II

सूखी काई से भरी छत पर पड़ी पतंग में ,
लिखा क्या है तू ये पढने कब उपर आया II

सादगी के हीले से बेरुखी के सदके ‘अंदाज़’ ,
तू था यूँ तो मुझे यूँ कहने का हुनर आया II



©2015 “अंदाज़े बयान Dr.L.K.Sharma.


अब सितम ये भी (डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा)

अब सितम ये भी

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(लक्ष्य “अंदाज़”)


अब ये भी सितम कि मैं क्यूँ ना बरबाद हुआ !!

फलक से गिरा तारा क्यूँ जमीं पर आबाद हुआ !!


दलील तेरी वकील तेरे हाकिम भी बगलगीर हुए ,

हर फैसला हक में बता फिर तू क्यूँ नाशाद हुआ !!


गीत गाना गुनाह था गला चाक कर दिया होता ,

पंख नोच कर छोड़ दिया तू अजब सैय्याद हुआ !!


किसने कहा शमशीरों से आह दबी मुफलिस की ,

सदाए-कलम घोट दे ना ऐसा कोई जल्लाद हुआ !!


मरते हैं मर जाएंगे बस इतना सा समझ लीजे ,

लौट के फिर से आएँगे चमन हमे शमशाद हुआ !!


लाख सजा लो महफिल को जीनत नाम धरो चाहे,

याद करोगे शाईर था एक “अंदाज़” ना बेदाद हुआ !! 



 ……©2015 “ANDAZ-E-BYAAN” Dr.L.K.SHARMA



कब जा के रुकेगा (डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा)

कब जा के रुकेगा

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(लक्ष्यअंदाज़”)


देखें इस आवारगी का सफर कब जा के रुकेगा ।।

चाँद से बड़ा वो रश्के कमर कब जा के झुकेगा ।।


वो आँखों की अदाओं से भी तिज़ारत करने लगे ,

इस धूप में आईनो का कहर कब जा के रुकेगा ।।


बोलियों की मिठास भी ज्यूँ खार की खलिश हुई ,

कलेजे में उतर रहा ये नश्तर कब जा के रुकेगा ।।


अंजुमन के चिराग को आगोश में भर तो लिया ,

परवानों की होड़ में ये बशर कब जा के रुकेगा ।।


अल्फ़ाज़ों की आड़ में है ये ज़हालत 'अंदाज़' की ,

यूँ ग़ज़ल के बदन पर बहर कब जा के झुकेगा ।।


©2015 “अंदाज़े बयान Dr.L.K.Sharma.


Sunday, 13 September 2015

सिमट कर नहीं रहता (डॉ.लक्ष्मी कान्त शर्मा)

सिमट कर नहीं रहता

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(लक्ष्य “अंदाज़”)

वैसे भी मेरे घर की चिलमन में सिमट कर नहीं रहता !!
रंग नहीं खुशबू है वो मधुवन में सिमट कर नहीं रहता !!

गहरी आँखों के पानी में इक किश्ती कोई डूबी तो क्या ,
रूप का दरिया एक ही दरपन में सिमट कर नहीं रहता !!

कल जब वो उस जंगल से ज़ख़्मी हुए पाँव लिए लौटा ,
बोला ये बनफूल किसी चमन में सिमट कर नहीं रहता !!

गीली माटी की सौंध में लिपटे खस को क्या पहचानोगे,
जो शज़र चन्दन है वो सहन में सिमट कर नहीं रहता !!

तू दरिया के बालू सा सौदागर तुझे मूर्तियों में गढ़ लेंगे ,
सहरा की रेत मैं किसी सावन में सिमट कर नहीं रहता !!

सूखती फसल लहलहाती बेटियाँ इक टुकड़ा बंजर ज़मीं ,
अब किसान जीव का धडकन में सिमट कर नहीं रहता !!

‘अंदाज़’ को न बदनाम कर उसके अंदाज़ बड़े अच्छे हैं ,
ये बात और वो अब तेरे दामन में सिमट कर नहीं रहता !!


……©2015 “ANDAZ-E-BYAAN” Dr.L.K.SHARMA


Thursday, 10 September 2015

एक सहमी सी शाम (डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा )

एक सहमी सी शाम 
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(डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा )


एक सहमी सी शाम 

दबे पाँव आएगी 

हाईवे पर दौड़ते ट्रक्स और 

हैडलाइट्स की चिंघाड़ती रौशनी में

दम तोड़ जाएगी 


मुझे फिर यादों के 

उसी बियाबान में छोड़ जायेगी 

हौसला अब तो 

यह भी कहने का नहीं मेरा 

वो किसी रोज़ लौट आएगी 


और… 

किसी विकलांग मौन के 

नपुंसक सम्मोहन में पड़ी तुम 

कैसे मेरे साथ चल पड़ी तुम 


मोमबत्ती की मानिंद 

रात भर जली तुम, क्या 

इतना मोम जमा कर पाओगी 

कि मेरी रूह जो इन दिनों 

खुली आँखों देख रही है 


तुम्हारे संग के 

संग मरमरी सपने 

उन आंखों को,
उस मोम से भर पाओगी 


और 

सुदूर पूरब की हवाओं के साथ 

बह कर आ रही 

तुम्हारी साँसों की वो रंगीन तितलियाँ 

कैसे मेरे ज़ख़्मी सीने से उड़ा पाओगी 


मित्ती बोलो ...
कब तक इन कविताओं का आडम्बर रचता रहूँ  !!
हाँ मैं चाहने लगा तुमको ये कहने से बचता रहूँ !!


……©2014 Dr.L.K.SHARMA




Sunday, 6 September 2015

भानमती के गाँव में (डॉ.लक्ष्मीकांत शर्मा )

भानमती के गाँव में
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(
लक्ष्य अंदाज़”) 

अब के जो लोग हाथ में पत्थर उठा के आयेंगे !!
तेरे कूचे में हम भी अब ज़ख्म बिछा के जायेंगे !!

अंगारों सी रात को रोशन करो और जल जाओ, 
हम धूनी की राख को पलकों से उठा ले जायेंगे !!

भानमती के गाँव में तुम अन्धमति सी फिरती हो,
देखना एक दिन तुम्हें वो जोगी उठा ले जायेंगे !!

तुम पैरहन के रंगों से बदलियाँ बनाती ना फिरो ,
बहके से मोर देखेंगे उन्हें और बावले हो जायेंगे !! 

तेरे इश्क की झीलों में अब झेलम उतरके आई है,
अंदाज़के अश्कों में अब ये काफिले बह जायेंगे!! 




 ……©2014 “ANDAZ-E-BYAAN”Dr.L.K.SHARMA
 

Saturday, 5 September 2015

तुम नहीं थे, जीवन में (डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा )


तुम नहीं थे, जीवन में

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बस तुम नहीं थे जीवन में 

कोई और थे ,कई ठौर थे !!

अधिकार दर्प के मठाधीश 

कुछ शीशकटे सिरमौर थे !!


मैं तुम बिन बहुत अधूरा हूँ !

रैतिल्य-जन्मका चूरा हूँ !!

हरी-भरी इस दुनिया में ,

एक टूटा पाँख सुनहरा हूँ !!


अब ढलती साँझ का दीप बनूँ !

उन आँखों का अंतरीप बनूँ !!

मुझे खुद में ही विलीन करो, 

मैं इन श्वासों सा समीप बनूँ !!


अब तूफानों की आहट दो !

या कोंपल की अकुलाहट दो !!

मैं मृत्यु-द्वारसे लौटा हूँ ,
,
मुझे जीवन सपन सजावट दो !!


बन कर सरस सरिता आओगी !

इस जलते तरुवर पर छाओगी !!

मैं राह ख्वाब की देखता हूँ ,

मैं रातों जाग के सोचता हूँ ,

अब आओगी ..तब आओगी !!

कब आओगी ..कब आओगी !!


बस तुम नहीं थे जीवन में 

कोई और थे ,कई ठौर थे !!

अधिकार दर्प के मठाधीश 

कुछ शीशकटे सिरमौर थे !!



……© 2015Dr.L.K.SHARMA

Friday, 4 September 2015

नहीं है , कुछ याद मुझे -I (डॉ.लक्ष्मीकांत शर्मा)

नहीं है , कुछ याद मुझे -I

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{“TUMHEN YAAD HOGA “}


अब नहीं मुझे याद आते 

कायलानाझील के निर्जन 

हरे किनारे !!

नहीं जगमगाते निगाह में 

तुम्हारी धानी चूनर के 

झिलमिल सितारे !!


अब नहीं बहता मेरी आँखों में 

तुम्हारे यौवन का विक्षुब्ध 

विक्रांत जलधि’ !!

फाग की इस दुपहरी में अब 

लग जाती है खिन्न उदासीन सी 

क्लांत समाधि !!


झील से सटे उसी पुराने मंदिर के 

अहातों में अब नहीं 

गूंजती तुम्हारी गुलाबी चूड़ियों की 

रेशमी झंकार !!

जहाँ एक छोटे मुलायम से छौने 

की तरहा मेरी गोद में 

सर रख के सोये तुम 

हर बार !!


मेरी चेतना के गिर्द अब नहीं होती 

तुम्हारी सांवली श॒लथ बाँहें !!

मेरे बटुए में अब 

राख है कुछ 

सुकोमल कल्पनाओं की 

और मेरी निगाहों में सूनी राहें !!




……©2014 “TUMHEN YAAD HOGA “ LK SHARMA