Monday 22 June 2015

एक विकलांग से मौन के

एक विकलांग से मौन के 
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एक विकलांग से मौन के 

नपुंसक सम्मोहन में पड़ी तुम 

कैसे मेरे साथ चल पड़ी तुम 



मोमबत्ती की मानिंद 

रात भर जली तुम, क्या 

इतना मोम जमा कर पाओगी 


कि मेरी रूह जो इन दिनों 

खुली आँखों देख रही है 

तुम्हारे संग के 

संग मरमरी सपने 

उन आंखों को, 
उस मोम से भर पाओगी 


और 

सुदूर पूरब की हवाओं के साथ 

बह कर आ रही 

तुम्हारी साँसों की वो रंगीन तितलियाँ 

कैसे मेरे ज़ख़्मी सीने से उड़ा पाओगी 


मित्ती बोलो ...
कब तक इन कविताओं का आडम्बर रचता रहूँ !!
हाँ मैं चाहने लगा तुमको ये कहने से बचता रहूँ !!



……© 2013Dr.L.K.SHARMA

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