प्रयाण गीत
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किसी अंधे कुएं की
किसी अंधे कुएं की
सूखी गहराइयों सी नींद में
एक पथरीली छटपटाहट सी
उभरती हो तुम .....!!
महसूस करता हूँ अचानक
हाथ छुड़ा कर जाना तुम्हारा
रात के पिछले पहर
कमरे के नीले अँधेरे में
कुछ साए उभरते हैं
कुछ अक्स बनते बिगड़ते हैं
अपनी हंसती हुई तस्वीरों का
अक्स लेकर दीवारों पर
उभरती हो तुम......!!
उस नीम बेहोशी में मेरे सीने में
कुछ अजाने से दर्द महकते रहे
प्रेम के लहुलुहान परिंदे
और मेरी बेलौस आवाज़ के
बेख़ौफ़ ‘शाहीन’ ...
गले से मांस के अनगढ़ लोथड़ों से निकलते रहे
मौत सी शिकारी रात के
खौफनाक पंजो में सहमते रहे
आज सुबह फिर ...
सहमे हुए परिंदों ने
अपने नुचे हुए पर समेटे
एक डगमगाती सी परवाज़ के लिए
अपने खंडित पैरों को उठाया
और लडखडाते हुए
एक बार फिर उड़ चले
‘ढाई कदम’ दूर
प्रेम की जानिबे-मंजिल !!
गुंजा,
..
वैसे भी तो मैं
वैसे भी तो मैं
मैं हर रात, साँझ ढलने के बाद ,
बेख़ौफ़ ‘फिनीक्स’ पंछी जैसा
अपने ही अंतस की आग से
जल जाता हूँ
फिर मैं हर सुबह ,
अपनी ही राख से पंख फडफडाते हुए
यूँ ही जी उठता हूँ.....
तुम्हें याद हैं ना
कभी बोली थी तुम
धर्म क्षेत्रे ...‘कुरु’ क्षेत्रे
देखो... ना, मेरा नाम भी है
इसमें
क्षेत्रे क्षेत्रे
...‘कुरु’.... ...‘कुरु’......
(डॉ.एल के .शर्मा )
……© 2013Dr.L.K. SHARMA
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