Monday, 22 June 2015

तिश्य , आओ लौट चलें .......

तिश्य , आओ लौट चलें ......
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तिश्य ,
आओ लौट चलें .......
उन दिनों में , जब 


मेरा नाम ‘दुर्योधन’ नहीं था 
और प्रेम के ‘मोहन’ को 
संदेह की डोरियों में बाँधने की 
मेरी हिम्मत पड़ी नहीं थी !!


उन दिनों में ..तिश्य,

जब शरद-पूनो वाली सांझ में 
गंभीरी नदी के पाट पर 
शर्म सी लजाती सपन सुरमई 
हमारी आँखें लड़ी नहीं थी !!

उन दिनों में ..तिश्य,

जब हर सुबह हम 
फूलों की बात करते थे 
और मेरे आज की तरह 
मेरे बिस्तर पर यादों की 
कलियाँ मुरझाई पड़ी नहीं थी !!

और .....
उन्हें नम रखने में नाकाम 
इन आँखों में आंसुओं की 
लड़ी नहीं थी .............

आओ, फिर से लौट चलें 
उन दिनों में !!
आओ तिश्य... 

हम मिलें फिर वहीं ..........
जहाँ कलरव था जल पांखियों का 
कलकल बहती नदियों का 
प्रेम करने को आतुर दो आँखें थी 
देह का गीत रचती उष्ण साँसें थी 

आओ तिश्य... 
हम मिलें... 
फिर वहीं 
यहाँ, अब और नहीं ....!!




……©2014DR. LK SHARMA

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