Sunday 14 June 2015

तुम्हारी नयी किताब के लिए

तुम्हारी नई किताब के लिए 
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कुछ भी ख़ास नहीं
आज की इस सहर में
बादलों की बस्तियों में,
झीलों वाले शहर में !!!

कुछ भी ख़ास नहीं
सिवा इसके कि,
तुहारी नई किताब
मेरे सिरहाने पड़ी है
जैसे , तुम से दूर होकर भी
ये तुम्हारे पास आने की घड़ी है
तुम्हारे हर अफ़साने में
उलाहनों के फूलों में गुंथी
मेरे ही अश्कों की लड़ी है
मैं नज्मों की रोशनाई को
अपनी सूनी आँखों की
कोटरों से सोख रहा हूँ
यूँ ,हर ग़ज़ल के उन्वान में
अपना ही नाम खोज रहा हूँ !

वो चाँद-रात कब की चली गयी
मैं अब तक तुम्हें सोच रहा हूँ !!
कुछ भी ख़ास नहीं
आज की इस सहर में
बादलों की बस्तियों में,
झीलों वाले शहर में !!!

लक्ष्य “अंदाज़”
……©2013 .TUMHEN YAAD HOGA. Dr.LK SHARMA

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