Monday, 22 June 2015

अब खेल नहीं

अब खेल नहीं
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(लक्ष्य अंदाज़”)

इतवार की सहमी सुबह को मनाना खेल नहीं !!
हम जो रूठे हैं तो हमको समझाना खेल नहीं !!

ऐतबार के सांचे में कल भी एक कील पैठ गई ,
कैसे ढल पाएगी अब मूरते –जाना , खेल नहीं !!

मैं सारी रात तेरे चेहरे के तआरूफ पढता रहा ,
तेरी उन नम आँखों से लम्स चुराना खेल नहीं !!

रगों में दौड़ते दर्द ने कल रो रो कर यह  कहा ,
बेकस लफ्फाजी से बज्म को हँसाना खेल नहीं !!

ऐ, तू तो मेरे हरफों से हकीकत जान लेता है ,
मेरे हसीन मेहरबान तुझे बरगलाना खेल नहीं !!

मेरी बेबसी में औ’ बेवफाई में कुछ तो फर्क कर ,
इक दर्दमंद दिन में भी नश्तर चुभाना खेल नहीं !!

न जाने कितने मराहिल तय किये तो यहाँ आए ,  
तेरी गलियों में “अंदाज़” का बस जाना खेल नहीं !!



©2015 “ANDAZ-E-BYAAN” Dr.LK SHARMA


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