मैंने ढूंढा तुम्हें
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(लक्ष्य “अंदाज़”)
बादलों में छुपी
चाँदी रेख सी !
बौद्द स्तूप के गूढ़
आलेख सी !
अपठित ही रही अनछुई
सी रही ,
चाँद चातक की चटकी हुई
प्यास में…..
मैंने ढूंढा तुम्हें
धरती आकाश में !!
झील में गईं चाँद
जैसी छिपी !
मौन पर्वत में नाद
जैसी छिपी !
एक अनदिखी गूंज सी
हो गईं ,
आने जाने लगीं मेरी
सांस सांस में ….
मैंने ढूंढा तुम्हें
धरती आकाश में !!
बहर में छिपी ग़ज़ल बन
गईं !
मेरे गीतों से खोया
पल हो गईं !
किताबों में रहीं
खिताबों में रमी ,
वर्ण -छंदों के छद्म
आभास में……
मैंने ढूंढा तुम्हें
धरती आकाश में !!
तुम नदी हुई तुम सोचने
भी लगीं !
चीडवन में खुद को
रोपने भी लगीं !
रुक के सोचा नहीं
तुम बहती गईं ,
किस सागर की अंजान
आस में……
मैंने ढूंढा तुम्हें
धरती आकाश में !!
©2015Dr.LK SHARMA
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