Thursday, 2 July 2015
हवा तेरे शहर की
हवा तेरे शहर की
(लक्ष्य “अंदाज़”)
ये हवा जो तेरे शहर जाए मैं भी जा कर देखूँ !!
तेरे बोए गुलाबों की महक में मैं नहा कर देखूँ !!
पुरानी किताबों में दबी मोर -पंखियों को छू लूँ ,
पलाश की पँखुरियों को दाँतों में दबा कर देखूँ !!
डूबती साँझ किसी झील में किसी शिकारे पर ,
मैं दोनो चाँद अपनी आँखों में समा कर देखूँ !!
तुम तो पानी में उतरते चाँद को डूब कर देखो ,
मेरे चाँद मैं भी खुदी को तुम में डूबा कर देखूँ
!!
तुम्हें आँखों में बसा कर अंधेरों से लड़ा हूँ मैं
,
काफिया तो दो, तुम्हें ग़ज़ल बना कर देखूँ !!
इन आँखों से अब शीशे भी हटाता नहीं हूँ मैं ,
कोई और देखे तुम्हें यहाँ मैं ये क्यूँकर देखूँ
!!
‘अंदाज़’ की नज्मों में दुनिया तुम्हें ढूँढ ही लेगी
,
मैं अब वॅायलिन की धुन को तान चढ़ा कर देखूँ !!
तुम सरे-शाम यूँ ही बस बाम पर आती रहना ,
मैं मुशायरे से लौटूँ तो बस तुम्हें आ कर देखूँ
!!
……©2014 “ANDAZ-E-BYAAN” LK SHARMA
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment