सोचो, सुदेष्णा दृश्य यूँ भी बदलते हैं
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कहो , तुम कौन हो
जन्मों से मौन हो
झील के पानियों में
हंसिनी सी तैरती !!
निश्शब्द शब्द टेरती
कालनिशा की झोली से
नींद को सकेरती
चक्षुओं की चितवन
अनेक चित्र उकेरती
!!
यक्षिणी कि , भैरवी
अप्सरा कि , गंधर्वी
रक्त वाहिका में
क्यूं
उत्तेजना बिखेरती !!
आराध्य हो या
प्रेयसी
दिव्यता से मदलसी
कामना की बनचरी
रेख को उकेरती !!
चपला सी चन्द्राक्षी
कोमल कामाक्षी
अस्फुट सी वाणियों
में
मन्मथ उच्चारती !!
तुम रूद्र अभिषेक हो
अपर्णा अशेष हो
रूद्र वीणा तान से
ज्योतिर्लिंग अबेरती
!!
तुमने शिव आराधे हैं
मैंने शव भी साधे
हैं
दिव्य द्वैत का यह
संगम
यहाँ म्रृत्यु मोक्ष
को हेरती !!
मैं युगों युग
निहारता
नगर ग्राम पुकारता
प्यास की परिधिं में
तुम्हें व्यास बन
बांधता
वर्जित मर्यादा के
अंधकूप लांघता
इस लोक की नहीं तुम
यह जीवन की बाध्यता
तुम जा बैठी आकाश में
आकाश गंग निहारती !!
भृगु-संहिता के पतरे
में
मेरे तीन जन्म
बांचती !!
कहो , तुम कौन हो
जन्मों से मौन हो
झील के पानियों में
हंसिनी सी तैरती !!
……©2015
“कहो
ना कंतुश” Dr.L.K.SHARMA
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