सुन रही हो , गुंजा.....
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( डॉ० लक्ष्मीकांत शर्मा )
“सुनो , हमारी दोस्ती कब हुई... ?”
पता नहीं मेरी तन्द्रा तुम्हारे सवाल से टूटी ,या अपनी आँखों
पर झूल आई ,सुनहरी सी लटों को
झटके से
पीछे करने में तुम्हारे बाएं हाथ के दो फिरोजी कांच के कडों के टकराने से हुई
आवाज़ से...
पर मैं उस दिन वाकई तैयार नहीं था उस सवाल के लिए ,
तुम्हारी आँखों में झाँक कर देखा
उन
सपनीली आँखों में एक चेतावनी जैसा कुछ था ...बरज रही हों जैसे ....
बीकानेर की एक पीली आंधी वाली शाम थी ये रेत के समंदर के
किनारे !
गुंजा ...
उस दिन मैंने पूछना चाहा
“क्या तुम्हें मालूम नहीं ये ...?”
‘ये शायद सोलहवीं शताब्दी की बात है ..जब हम पहली बार मिले
थे"
उम्मीद थी तुम हंसोगी ... पर नहीं ,...तुम किसी सोच में दिखी
..तुम्हारी आँखें अब जैसे
किसी स्वपनलोक ,
में जाने को तैयार थी ...
“कौन थी मैं तब
...?.. ये सवाल तो हरगिज़ नहीं था ..
क्या नाम था मेरा ?
“तिश्य” ...अचानक मेरे मुहं से निकला ..तुम राजकुमारी थी ..
“और तुम कहाँ थे वहां ?
“ सामंत था उसी रियासत का ....जो बाद में सन्यासी हो गया ...
‘’ तुम को कहाँ मिली मैं सबसे पहले ..बागीचे में ..
अब हैरत की बारी मेरी थी ..हाँ कुछ धुंधला सा याद है
“याद करो मैं और मेरी सखी ...
“समय की सरकती रेत पर
सोये जज्बातों के बाग में
एक सुरमई सी सांझ में
‘वर्जनाओं’ के दरख़्त तले
अचानक तुम्हारे होठ खुले
सुनो आज का नहीं ये रिश्ता
पिछले जनम के कालखंड से
ढूंढ कर छोड़ गया है तुमको
आज कोई पगलाया सा फ़रिश्ता ...........
गुंजा ....
उस अँधेरी सी शाम में अचानक हमारे बीच प्रेम विरह और दर्द
के कई रंग उतर आये थे.
मुझे जाना है अब ...तुम उठी और धीमे से बोली ...
“तुम कई जन्मो से साथ हो
मेरे...पर इस बार बहुत देर से मिले हो .... !!
मेरे अगले कई दिन बेहद उदासी भरे
गुजरे ....हर घडी तुम मेरे भीतर बोलती रही थी जैसे ..
अचानक एक दिन लंच के बाद मेरे
ऑफिस के फोन पर तुम्हारा फोन आया ..
“तिश्य और सामंत का क्या रहा था
क्या वो मिल पाए कभी ...
सुनो गुंजा .....
मैं निरुत्तर हूँ ......
आज भी
मैंने प्रेम के गहरे गुलाबी रंग को
खून के लाल रंग में तब्दील होते देखा
जिस के दो टुकड़े हुए जिन्हें
विरह और दर्द के स्याह रंगों
में तकसीम होते देखा
सोये जज्बातों के बाग में
एक सुरमई सी सांझ में
मैं एक मासूम से रिश्ते की
लाश लिए लौटा
अतीत की स्मृतियों से कांपती
तुम्हारी हथेलियों की निरर्थक
तलाश लिए लौटा
उस दिन से आज तक मैं उसी
दरके हुए काल-खंड को सी रहा हूँ
मेरे जिस्म के काँटों में फँसी
अमरबेल सी तुम्हारी चाहत का हरापन
कहता है कि......हाँ ! सुनो
मैं अभी तक जी रहा हूँ
समय की सरकती रेत पर
‘वर्जनाओं’ के दरख़्त तले
मैं अभी तक जी रहा हूँ
सुन रही हो न तुम ,
खून के लाल रंग में तब्दील होते देखा
जिस के दो टुकड़े हुए जिन्हें
विरह और दर्द के स्याह रंगों
में तकसीम होते देखा
सोये जज्बातों के बाग में
एक सुरमई सी सांझ में
मैं एक मासूम से रिश्ते की
लाश लिए लौटा
अतीत की स्मृतियों से कांपती
तुम्हारी हथेलियों की निरर्थक
तलाश लिए लौटा
उस दिन से आज तक मैं उसी
दरके हुए काल-खंड को सी रहा हूँ
मेरे जिस्म के काँटों में फँसी
अमरबेल सी तुम्हारी चाहत का हरापन
कहता है कि......हाँ ! सुनो
मैं अभी तक जी रहा हूँ
समय की सरकती रेत पर
‘वर्जनाओं’ के दरख़्त तले
मैं अभी तक जी रहा हूँ
सुन रही हो न तुम ,
गुंजा.....
……©2015Dr. L.K. SHARMA
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