Friday, 21 August 2015

तुम यूँ भी साथ होती हो (डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा)

  तुम यूँ भी साथ होती हो 

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   (डॉ.लक्ष्मीकान्त शर्मा)



कभी यूँ भी
तुम साथ होती हो....


अपने आप में सिमटी
पेशानी पर दो सलवटें लिए
घर भर में लगातार घूमती हो !


कभी यूँ भी
तुम साथ होती हो....


बंद खिडकियों वाले अँधेरे कमरों में
पायलों के रोशनदान सी चांदी चमकाती हो
नए कंगनों के फ़िरोज़ से यूँ ही
अदृश्य धूल हटाती रहती हो !


कभी यूँ भी
तुम साथ होती हो....


जैसे रातों में चाँद मेरे साथ होता है
जिसे छूने की नाकाम कोशिशें को देखकर
मेरे दोनों हाथ सुन्न कर जाती हो !
 
कभी यूँ भी
तुम साथ होती हो
कि मैं देर तक तुमसे लड़ता रहता हूँ 
ये जताने को कि, साथ हूँ तुम्हारे 

क्योंकि मैं जानता हूँ बहुत जल्द तुम
खुद को ही तनहा कर जाती हो !


कभी यूँ भी
तुम साथ होती हो....


फुर्सत से अपने बिस्तर पर अधलेटी सी
अपनी पुरानी यादों के दरीचों में
डायरी के साथ दांतों में पेंसिल दबाये
किसी कविता का भाव सोचती हो !


ऐसे मैं अक्सर मैं 
कमरे का उढका दरवाज़ा खोल कर
चुपचाप भीतर सरक जाता हूँ
हैरानी से फैली आँखें लिए
बेतरह मुझसे लिपट जाती हो !!


अक्सर तुम,
यूँ ही
साथ होती हो !!



……©2015Dr. L.K. SHARMA
 

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