‘ऐत्तन्निमित’
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( 1 )
उतरती सर्दी की
सूनी सी दुपहरी में
जलबंध किनारे
कीकर की डालियों से
छनकर आती धूप
बरस दर बरस
छीज रही उम्र सी
मद्दम पड़ती रौशनी
( 2 )
सम्प्रवर्तित हवाओं में
आक्षेपों के पंख लिए
तैरते हैं संदेह के
सिद्धदोष ‘बीज’
कीकर की कोटरों में
छिपी कमेडी सा
बोलता है वक़्त
( 3 )
छलना के गर्भ में
पाखंड के पार्थ से सुना
अधूरा युद्ध-कौशल
आखिर दंडादिष्ट हुआ
‘ऐत्तन्निमित’ चक्रव्यूह में
एक और अभिमन्यु का
अभित्रासित अंत हुआ
( 4 )
भग्न किले पास से
शहर से दूर जाती
इस सड़क से
कहते हैं जो गया
फिर नहीं लौटा
जैसे जीवन की
इस आपाधापी में
मेरी कई कवितायें
रूठ कर गईं
तुम्हारी तरह ......
(डॉ.एल.के.शर्मा)
……©2015 Dr.L.K.SHARMA
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